@हाकी के ‘जादूगर’ मेजर ध्यानचंद …. उनकी स्टिक में एक जादू परिलक्षित होता था….. ड्रिबलिंग करते थे तो अच्छे -अच्छे खिलाड़ियों के पसीने छूट जाते थे .. ★राष्ट्रीय खेल दिवस पर….

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@हाकी के ‘जादूगर’ मेजर ध्यानचंद ….

उनकी स्टिक में एक जादू परिलक्षित होता था…..

ड्रिबलिंग करते थे तो अच्छे -अच्छे खिलाड़ियों के पसीने छूट जाते थे ..

★राष्ट्रीय खेल दिवस पर….

★रिपोर्ट — (हर्षवर्धन पांडे ) “स्टार खबर”  नैनीताल …

उनकी स्टिक में एक जादू परिलक्षित होता था। हाकी थामे जब वो ड्रिबलिंग करते थे तो अच्छे -अच्छे खिलाड़ियों के पसीने छूट जाते थे । आप कह सकते हैं हाकी के मैदान पर अपने तीसरे नेत्र द्वारा वो विपक्षी टीम के हर खिलाड़ी पर पैनी नजर रखते थे । उनका दिल और दिमाग हर समय हाकी के खेल में ही डूबा रहता था। सही मायने में उनके आसपास हाकी जैसे राष्ट्रीय खेल का औरा था। वे मैदान पर जब रहते थे तो खेल के हर दांव पर चीजों को साधते थे। वे लोग भाग्यशाली थे जिन्होनें महान हाकी जादूगर ध्यानचंद के खेल को बेहद करीब से देखा है। उनकी सबसे बड़ी देन यही है कि उन्होंने देश के हर खिलाड़ी को यह पाठ पढ़ाया कि आपकी परिस्थितियां आपको बड़ा बनने से रोक नहीं सकतीं, अगर आप में खेल के प्रति जुनून है। किसी भी खिलाड़ी की महानता को आप उसके खेलों के प्रति समर्पण, जिद और जुनून से बखूबी नाप सकते हैं , उस हिसाब से तो मेजर ध्यानचंद महान खिलाड़ी थे । उन्हें हॉकी में फिरकी का जादूगर यूं ही नहीं कहा जाता था।

ध्यानचंद का जन्म उत्तरप्रदेश के इलाहबाद में 29 अगस्त 1905 को हुआ था। उनके पिता का नाम समेश्वर सिंह था जो ब्रिटिश इंडियन आर्मी में एक सूबेदार के रूप कार्यरत थे। हाकी का माहौल तो मानो पूरे परिवार में ही था। पिता को हाकी की स्टिक पकड़ा देखकर ध्यान ने भी हाकी की स्टिक थाम ली। यह वह दौर था जब ध्यानचंद के भाई मूल सिंह और रूप सिंह भी हाकी के हीरो के रूप में जाने जाने लगे। हॉकी के खेल में ध्यानचंद की प्रतिभा देखते ही बनती थी । उन्होंने सतत साधना, अभ्यास, लगन, संघर्ष और संकल्प के सहारे भारतीय हाकी को दुनिया में अपने आसरे न केवल नई पहचान दिलाई बल्कि दुनिया में भारत की हाकी की धमक अपने खेल के जरिये दिखाई। ध्यानचंद जब महज 14 बरस के थे, तब वह अपने पिता के साथ हॉकी मैच देखने के लिए गए। जहां उन्होंने एक टीम को 2 गोल से हारते हुए देखा, तभी चाँद ने अपने पिता से पूछा कि वह हारने वाली टीम से खेल सकते हैं। उनके पिता ने कहा “हाँ क्यों नहीं।” उस मैच में ध्यान चंद ने 4 गोल किए। उनके प्रदर्शन को देखते हुए सेना के अधिकारी इतने प्रभावित हुए और उन्हें सेना में शामिल होने की पेशकश की। ध्यानचंद 16 साल की उम्र में “फर्स्ट ब्राह्मण रेजिमेंट” में एक साधारण सिपाही के रूप में भर्ती हुए लेकिन वे भारतीय सेना में मेजर के पद तक अपने खेल के जरिये पहुंचे। भारतीय सेना जॉइन करने के बाद उन्होंने हॉकी को अपना जीवन बना लिया किया।

ध्यानचंद बेहतरीन हाकी खेलते थे इसके लिए वो दिन – रात पसीना बहाया करते थे। उस दौर में उनके रात के अभ्यास सत्र को चाँद निकलने से जोड़कर देखा जाता था शायद यही वजह थी उनके साथी खिलाड़ियों ने उन्हें ‘ चाँद ‘ नाम दे दिया। ध्यानचंद को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन के समतुल्य माना जाता है। उनकी गेंद इस कदर उनकी स्टिक से चिपकी रहती कि प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को अक्सर आशंका होती कि कहीं वो किसी जादुई स्टिक से तो नहीं खेल रहे हैं। ध्यानचंद की हॉकी स्टिक से जिस तरह गेंद चिपकी रहती थी उसे देख कर उनकी हॉकी स्टिक में गोंद लगे होने की बातें भी पूरी दुनिया में कही गई। एक बार कुछ ऐसा हुआ कि नीदरलैंड में एक मैच के दौरान उनकी हॉकी स्टिक तोड़कर देखी गई, इस शक के साथ कहीं स्टिक में कोई चुम्बक तो नहीं लगी लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा क्योंकि जादू हॉकी स्टिक में नहीं ध्यानचंद के बेजोड़ खेल और हाथों में था। एक बार ध्यानचंद ने शाॅट मारा तो वह पोल पर जाकर लगा तो उन्होनें रेफरी से कहा की गोल पोस्ट की चौड़ाई कम है। जब गोलपोस्ट की चौड़ाई मापी गई तो सभी हैरान रह गए ।वह वाकई कम थी।

ध्यानचंद ने देश को स्वाभिमान से जीना भी सिखाया। उनकी कलाकारी से मोहित होकर ही जर्मनी के रुडोल्फ हिटलर सरीखे जिद्दी सम्राट ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने और जर्मन सेना में शामिल होने की पेशकश कर दी थी लेकिन ध्यानचंद ने हमेशा भारत के लिए खेलना ही सबसे बड़ा गौरव समझा और उन्होंने भारत में ही रहना पसंद किया और मौके पर ही इस पेशकश को ठुकरा ही दिया ।1936 में बर्लिन ओलंपिक में हिटलर के सामने ना सिर्फ जर्मनी की हॉकी टीम को 8-1 से पराजित किया, बल्कि उस दौर में दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर के सामने खड़े होकर तब उन्हें भारतीय होने का एहसास कराया, जब हिटलर से आंख मिलाना भी हर किसी के बस की बात नहीं होती थी। ध्यानचंद ने हिटलर की उस फरमाइश को खारिज कर दिया जिसमें हिटलर ने ध्यानचंद को भारत छोड़ कर्नल का पद लेकर जर्मनी में रहने को कहा था लेकिन, ध्यानचंद उस वक्त भी अपने फटे जूते, स्टिक और लांस-नायक के अपने पद को बतौर भारतीय ज्यादा महत्व दिया। अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में उन्होंने लिखा था, आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बेहद सरल और साधारण आदमी हूं। ध्यानचंद की हॉकी की जादूगरी के जितने किस्से हैं उतने शायद ही दुनिया के किसी अन्य खिलाड़ी के बाबत सुने गए हों।

ध्यानचंद का असली नाम ध्यान सिंह था जो नाम उनके कोच पंकज गुप्ता ने दिया था। उनकी हॉकी की कलाकारी देखकर हर हॉकी प्रेमी बिना वाह-वाह कहे बिना नहीं रह पाता था बल्कि प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाड़ी भी अपनी सुध – बुध खोकर उनकी स्टिक की कलाकारी को देखने में मशगूल हो जाते थे।1928 में एम्सटर्डम में हुए ओलिंपिक खेलों में वह भारत की ओर से सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी रहे। उस टूर्नामेंट में ध्यानचंद ने 14 गोल किए। एक स्थानीय समाचार पत्र में लिखा था, ‘यह हॉकी नहीं बल्कि जादू था और ध्यान चंद हॉकी के जादूगर हैं।’1936 के बर्लिन ओलंपिक में उनके साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने वर्ल्ड हॉकी मैगज़ीन के एक अंक में लिखा था, “ध्यान के पास कभी भी तेज़ गति नहीं थी बल्कि वो धीमा ही दौड़ते थे. लेकिन उनके पास गैप को पहचानने की गज़ब की क्षमता थी। डी में घुसने के बाद वो इतनी तेज़ी और ताकत से शॉट लगाते थे कि दुनिया के बेहतरीन से बेहतरीन गोलकीपर के लिए भी कोई मौका नहीं रहता था। ”

अपने शानदार खेल से ध्यानचंद विपक्ष की रक्षापंक्ति को छिन्न-भिन्न कर देते थे और दर्शकों को अपने बेहतरीन खेल से मंत्रमुग्ध कर देते थे ।इस पर विरोधी टीम अक्सर का सेंटर-हाफ में अपना संतुलन खो बैठती थी । ओलंपिक चैंपियन ध्यान चंद के बेटे अशोक ध्यानचंद ने मुझे बताया कि ध्यानचंद ड्रिब्लिंग के उस्ताद थे लेकिन उनकी असली प्रतिभा उनके दिमाग़ में थी । वो उस ढ़ंग से हॉकी के मैदान को देख सकते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है। उनको बिना देखे ही पता होता था कि मैदान के किस हिस्से में उनकी टीम के खिलाड़ी और प्रतिद्वंदी मूव कर रहे है।1947 के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान उन्होंने केडी सिंह बाबू को गेंद पास करने के बाद अपने ही गोल की तरफ़ अपना मुंह मोड़ लिया और बाबू की तरफ़ देखा तक नहीं। जब उनसे बाद में उनकी इस अजीब सी हरकत का कारण पूछा गया तो उनका जवाब था, “अगर उस पास पर भी बाबू गोल नहीं मार पाते तो उन्हें मेरी टीम में रहने का कोई हक़ नहीं था”।

ध्यानचंद ने कई यादगार मैच खेले लेकिन 1933 में कलकत्ता कस्टम्स और झांसी हीरोज के बीच खेला गया बिगटन क्लब फाइनल उनका सबसे ज्यादा पसंदीदा मुकाबला था। 1932 के ओलिंपिक फाइनल में भारत ने संयुक्त राज्य अमेरिका को 24-1 से हराया था। उस मैच में ध्यानचंद ने 8 गोल किए थे। उनके भाई रूप सिंह ने 10 गोल किए थे। उस टूर्नमेंट में भारत की ओर से किए गए 35 गोलों में से 25 ध्यानचंद और उनके भाई ने किए थे।1925 में उन्होंने अपना पहला राष्ट्रीय मैच खेला और उस मैच के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें भारतीय राष्ट्रीय टीम के लिए चुना गया। उन्होंने अपने अंतरराष्ट्रीय डेब्यू मैच में गोलों की हैट्रिक लगाई थी। दिसंबर 1934 में ध्यान चंद को टीम का कप्तान नियुक्त किया गया। वर्ष 1935 में क्रिकेट के महान खिलाड़ी डॉन ब्रैडमैन ने अपना पहला हॉकी मैच देखा, जिसमें ध्यानचंद खेल रहे थे। वह उनके प्रदर्शन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ध्यान चंद की प्रशंसा करते हुए कहा, “आप क्रिकेट में रन बनाने जैसे लक्ष्यों की भांति गोल करते हैं।” ऑस्ट्रेलिया के महान क्रिकेटर सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने 1935 में एडिलेड में एक हॉकी मैच देखने के बाद कहा था, “ध्यानचंद ऐसे गोल करते हैं जैसे क्रिकेट में रन बनता है।” ब्रैडमैन हॉकी के जादूगर से उम्र में तीन साल छोटे थे। ध्यानचंद कितने जबर्दस्त खिलाड़ी थे वियना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है जिसमें उनके चार हाथ और उनमें चार स्टिकें दिखाई गई हैं, मानो कि वो कोई देवता हों।

3 मई 1926 को न्यूजीलैंड में पहला मैच खेला था। न्यूजीलैंड में 21 मैच खेले जिनमें 3 टेस्ट मैच भी थे। इन 21 मैचों में से 18 जीते, 2 मैच अनिर्णीत रहे और और एक में हारे। पूरे मैचों में इन्होंने 192 गोल बनाए। उन पर कुल 24 गोल ही हुए। अंतर्राष्ट्रीय मैचों में उन्होंने 500 से अधिक गोल किए। अप्रैल, 1949 को प्रथम कोटि की हाकी से संन्यास ले लिया। तीन बार ओलम्पिक के स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सदस्य रहे ध्यानचंद की जन्मतिथि को भारत में “राष्ट्रीय खेल दिवस” के रूप में मनाया जाता है। उनके जन्म दिवस के मौके पर हर साल साल भारत में अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं । ध्यानचंद ने तीन ओलिम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया तथा तीनों बार देश को स्वर्ण पदक दिलाया। भारत ने 1932 में 37 मैच में 338 गोल किए, जिसमें 133 गोल ध्यानचंद ने किए थे। दूसरे विश्व युद्ध से पहले ध्यानचंद ने 1928 (एम्सटर्डम), 1932 (लॉस एंजिल्स) और 1936 (बर्लिन) में लगातार तीन ओलिंपिक में भारत को हॉकी में गोल्ड मेडल दिलाए। ध्यानचंद से 1949 तक करीब 23 साल तक भारत के लिए खेले। उन्होंने देश को आजादी से पहले एम्सर्टडम (1928), लॉस एंजिलिस(1932) और बर्लिन (1936) में लगातार तीन ओलंपिक में पीले तमगे दिलाए। तीन ओलंपिक के 12 मैचों में ध्यानचंद ने 39 गोल दागे। उन्होंने भारत के लिए 195 मैच खेले और 570 गोल किए। वर्ष 1956 में, 51 वर्ष की उम्र में ध्यान चंद सेना से मेजर के पद से सेवानिवृत्त हुए। भारतीय हॉकी में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए ध्यान चंद को सम्मानित करते हुए, एक भारतीय डाक टिकट जारी की गई। उन्हें 1956 में भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। वर्ष 2002 से, भारतीय खेल एवं युवा मंत्रालय द्वारा खिलाड़ी के जीवन भर के कार्य को गौरवान्वित करने के लिए “ध्यानचंद पुरस्कार” दिया जाने लगा। ध्यानचंद के जन्मदिन को हर वर्ष भारतीय राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति स्वयं खेल के अलग-अलग क्षेत्रों के अलग-अलग खिलाड़ियों को विभिन्न खेल सम्मानों (राजीव गांधी खेल रत्न, अर्जुन अवार्ड, द्रोणाचार्य अवार्ड, ध्यानचंद अवार्ड) से सम्मानित करते हैं। हाकी के इस जादूगर का जन्म दिन राष्ट्रीय खेल दिवस सभी विद्यालयों ,कालेजों ,और खेल अकादमियों में मनाया जाता है। यह दिन मनाने के पीछे एक उद्देश्य यह भी है कि हम अपने देश के युवाओं में खेल को अपना करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित कर पाएं और उनके अंदर ये भावना जाग्रित कर पाएं कि वे अपने खेल के उम्दा प्रदर्शन के जरिए खुद की तरक्की तो कर ही सकते हैं ,साथ ही उनके अच्छे खेल प्रदर्शन से देश का नाम भी ऊंचा करेंगे । देश की आज़ादी से पहले देश के बाहर देश का तिरंगा झंडा लेकर कोई शख्स गया था तो वह ध्यानचंद ही थे। ओलंपिक फाइनल में जर्मनी से भिड़ने से पहले बकायदा टीम के कोच पंकज गुप्ता, कप्तान ध्यानचंद के कहने पर कांग्रेस का झंडा हाथ में ले कर जर्मनी की टीम को पराजित करने की कसम खाई लेकिन भारत रत्न ध्यानचंद देने को लेकर भारत में को लेकर सोचा भी नहीं गया। उनके मंझले बेटे अशोक कुमार सिंह का विशेष इंटरव्यू करने का सौभाग्य मुझे मिला है। हाकी के महानतम खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न मिलने के सवाल पर वो आज भी यही कहते हैं ‘ दादा का खेल पूरी दुनिया ने देखा है वो किस तरह के खिलाड़ी थे?’। भारत की 1975 विश्व कप जीत के हीरो अशोक ने एक दशक पहले ध्यानचंद को भारत रत्न देने की यह मुहिम शुरू की थी लेकिन तीन ओलंपिक में स्वर्ण पदक जिताने वाले हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को यह पुरस्कार अभी तक नहीं मिल पाया है। उन्होंने अपनी हॉकी की कलाकारी से देश का गौरव बढ़ाया और उस दौर में देश को ओलंपिक में लगातार तीन सुनहरे तमगे दिलाए जब सुविधाएं नाममात्र थी। देशभर से 41 बरस बाद भारतीय हाकी टीम के कांस्य पदक जीतने के बाद से यही आवाज उठ रही है कि ध्यानचंद को अब भारत रत्न देने में केन्द्र की नरेंद्र मोदी सरकार को देरी नहीं करनी चाहिए। फिलहाल इसका जवाब उनके बेटे अशोक ध्यानचंद के पास भी नहीं है लेकिन जनभावनाओं और ध्यानचंद के हाकी के प्रति समर्पण को देखते हुए उन्हें अभी भी उम्मीद है कि सरकार देर -सबेर इस इस बारे में जरूर सोचेगी ।