@ अंत्योदय और एकात्म मानववाद के पथिक पंडित दीनदयाल…..
★पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक भारतीय विचारक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री,लेखक, पत्रकार, संपादक थे…
★ रिपोर्ट – ( हर्षवर्धन पाण्डे) ” स्टार खबर” नैनीताल …..
पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक भारतीय विचारक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री,लेखक, पत्रकार, संपादक थे। पंडित जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी एक दौर में रहे। ब्रिटिश शासन के दौरान इन्होंने भारत द्वारा पश्चिमी धर्म निरपेक्षता का विरोध किया। उन्होनें लोकतंत्र की अवधारणा को सरलता से स्वीकार किया लेकिन पश्चिमी कुलीनतंत्र , शोषण और पूंजीवादी मानने से साफ़ इंकार कर दिया। पंडित जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन जनता की सेवा में लगा दिया। भारतीय पत्रकारिता में राष्ट्रवादी स्वर को गति देने वाले पत्रकारों में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम आदर के साथ लिया जाता है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के नवनिर्माण में किया , जिनमें दीनदयाल प्रमुख रूप से शामिल थे ।
दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916, नगला चन्द्रभान, मथुरा, उत्तर प्रदेश में एक मध्यम वर्गीय प्रतिष्ठित हिंदू परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय और माता का का नाम रामप्यारी था। उनके पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे। दीनदयाल ने कम उम्र में ही अनेक उतार-चढ़ाव देखा, परंतु अपने दृढ़ निश्चय से जिन्दगी में आगे बढ़े। उन्होंने सीकर से हाईस्कूल की परीक्षा पास की और स्कूल और कालेज में अध्ययन के दौरान कई स्वर्ण पदक और प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त किये । दीनदयाल इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के लिए 1935 में पिलानी चले गए। 1937 में इण्टरमीडिएट बोर्ड के परीक्षा में बैठे और न केवल समस्त बोर्ड में सर्वप्रथम रहे वरन सब विषयों में विशेष योग्यता के अंक प्राप्त किए। बिडला कॉलेज का यह प्रथम छात्र था, जिसने इतने सम्मानजनक अंकों के साथ परीक्षा पास की थी। सन 1939 में सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। एम.ए. अंग्रेजी साहित्य में करने के लिए सेंट जॉन्स कॉलेज आगरा में प्रवेश लिया। इसके पश्चात उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा पास की लेकिन आम जनता की सेवा की खातिर उन्होंने इसका परित्याग कर दिया।
एक पत्रकार के तौर पर पंडित दीनदयाल का उदभव 1946 में माना जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने लोक कल्याण को ही पत्रकारिता का प्रमुख आधार माना। दीनदयाल के पास समाचारों का न्यायवादी एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण था। उनके लेखों, उपन्यासों व नियमित कॉलमों में निष्पक्ष आलोचना, उचित शब्दों का प्रयोग और सत्यपरक खबरों को ही मानवता के अनुकूल मिलता है। दीनदयाल उपाध्याय के पत्रकारीय चिंतन के भारतीय जीवन मूल्यों के पक्ष को उद्धृत किया गया है। व्रतयुक्त पत्रकारिता में ऐसा नहीं है कि केवल दीनदयाल जी ही थे, कई और पार्टियों के ऐसे अखबार उस जमाने में निकलते थे। कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार, दूसरी छोटी-मोटी पार्टियों के अखबार, डॉ. राममनोहर लोहिया और अशोक महतो के अखबार, पत्रिकाएं आदि। उनमें भी उस तरह का त्याग और उसी तरह का विलक्षण वौद्धिक वैभव व मौलिकता थी, जो दीनदयाल जी की पत्रकारिता में देखने को मिलती थी। अपने राष्ट्रवाद के विचारों को जनमानस तक प्रेषित करने के लिए दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता को माध्यम बनाया था। पत्रकारिता किस प्रकार से जनमत निर्माण करने में सहायक होती है, यह दीनदयाल जी ने बखूबी समझा था। एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय ने गांधी के विचार को पुनःव्याख्यायित करते हुए अंत्योदय की बात की। दीनदयाल जी ने राष्ट्रहित व चिंतन के विचारों को पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। पं. दीनदयाल उपाध्याय एक कुशल पत्रकार और बेहतर संचारक थे। अपनी विचारधारा को पुष्ट करने के लिए पत्रों का संपादन, प्रकाशन, स्तंभ लेखन, पुस्तक लेखन उनकी रुचि का विषय था। उन्होंने लिखने के साथ-साथ बोलकर भी एक प्रभावी संचारक की भूमिका का निर्वहन किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय को साहित्य से एक अलग ही लगाव था शायद इसलिए दीनदयाल उपाध्याय अपनी तमाम ज़िन्दगी साहित्य से जुड़े रहे। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। साहित्य से लगाव इतना की उन्होंने केवल एक बैठक में ही ‘चंद्रगुप्त’ नाटक लिख डाला था।
भारत विभाजन के दौर में भयानक रक्तपात हुआ। देश, भारत को एक राष्ट्र मानने तथा भारत को द्विराष्ट्र मानने वाले में बंट गया। इसी हिंसाचार ने महात्मा गांधी को भी लील लिया। उनकी जघन्य हत्या हुई। देश के विभाजन की विभीषिका ने दीनदयाल जी को बहुत आहत किया। उन्होनें इस पर प्रखरतापूर्वक अपना पक्ष रखा। पंडित दीनदयाल के अनुसार अखण्ड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का परिचायक है जो अनेकता में एकता का दर्शन करता है। अतः हमारे लिए अखण्ड भारत राजनैतिक नारा नहीं है, बल्कि यह तो हमारे संपूर्ण जीवनदर्शन का मूलाधार है। अखंड भारत की अवधारणा से संबंधित ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का विश्लेषणार्थ उपाध्याय ने अखण्ड भारत क्यों? नाम की पुस्तिका लिखी, जिसमें उन्होंने प्राचीन भारत साहित्य के संदर्भित करते हुए भारत में युगों से चली आयी उस सांस्कृतिक एवं राजनैतिक परम्परा का उल्लेख किया है जो भौगोलिक भारत को एक एकात्म राष्ट्र के रूप में विकसित करने में समर्थ हुई थी। दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता की घोषणा की गई किंतु रावी के जिस तट पर स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा दोहरायी गई वह हमसे छिन चुका था। पंडित जी ने अपनी पुस्तक में कहा है”वास्तव में भारत को अखण्ड करने का मार्ग युद्ध नहीं है। राष्ट्रीय एकता नहीं अखण्डता भौगोलिक ही नहीं, राष्ट्रीय आदर्श भी है। देश का विभाजन दो राष्ट्रों के सिद्धांत तथा उसके साथ समझौते की प्रवृति के कारण हुआ। अखण्ड भारत एक राष्ट्र का सिद्धांत मन वचन एवं कर्म से डटे रहने पर सिद्ध होगा। जो मुसलमान आज राष्ट्रीय दृष्टि से पिछड़े हुए हैं वह भी आपके सहयोगी बन सकेंगे, यदि हम राष्ट्रीयता के साथ समझौते की वृत्ति त्याग दें”।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का स्पष्ट मत था कि भारत माता को खण्डित किये बिना भी भारत की आजादी प्राप्त की जा सकती थी और भारत माता को परम वैभव तक पहुँचाने में हम अधिक तीव्रगति से सफल हो सकते थे किंतु पंडित नेहरू और जिन्ना के सत्ता के लालच और अंग्रेजो की चाल में आ जाने से भारतवासियों का यह सपना पूर्ण नहीं हुआ और खण्डित भारत को आजादी मिली। दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार व्यक्तिवाद अधर्म है। राष्ट्र के लिए काम करना धर्म है। राष्ट्रधर्म को साधने के लिए जो कुछ आ पड़े, करना ही उचित है। सच-झूठ सबकी कसौटी समिष्ट का हित है। समिष्ट का विचार कर कार्य करने वालों की शक्ति ही सामूहिक संगठन शक्ति है। व्यक्तिवादी संगठित शक्ति नहीं बना पाते इसलिए राष्ट्रीयता ही वह कसौटी है जिस पर हमारी प्रत्येक कृति प्रत्येक व्यवस्था ठीक या गलत गिनी जायेगी। देशभक्ति और मानवता की सेवा में कहीं कोई विरोध नहीं। मानवता की सेवा करने के लिए देशभक्ति प्रथम सोपान है जिसे अपने जननी जन्मभूमि के प्रति ही प्रेम नहीं वह मानवता की क्या सेवा करेगा? उनका दृढ़ मत था कि राष्ट्र का स्मरण कर कार्य होगा तो सबका मूल्य बढ़ेगा। राष्ट्र को छोड़ा तो सब शून्य जैसा ही है। राष्ट्र के आधार पर ही व्यक्ति की कीमत बढ़ती है। राष्ट्र को छोड़ा तो कीमत घटती है। इस अखंड भारत माता के कोख से उत्पन्न सपूतों ने अपने क्रिया-कलापों से विविध क्षेत्रों में जो कुछ निर्माण किया उसमें भी एकता का सूत्र रहा है। हमारी धर्मनीति, अर्थनीति और राजनीति हमारे साहित्य, कला और दर्शन, हमारे इतिहास, हमारी स्मृतियां और विधान, सभी में बाहय भिन्नता के होते हुए भी आन्तरिक एकता की गहन भावना रहीं हैं। राष्ट्र के लिए ऐसी एकता की आज भी आवश्यकता है। जो भी भारत में रह रहा है, यहाँ का अन्न खाता है, यहाँ का पानी पीता है, यहाँ की हवा में सांस लेकर जीता है, वह कोई हो, वह भारतीय है और उसे भारतीय जीवन के साथ समरस होना ही चाहिए”।
दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उनमें एक कुशल शिक्षाविद, अर्थचिंतक, संगठनकर्ता, राजनीतिज्ञ, लेखक व पत्रकार सहित अनेक गुण थे। यह बात अलग है कि उन्हें लोग एकात्म मानववाद के प्रणेता के रूप और एक संगठन के कुशल सेवी के रूप में अधिक जाना जाता है। उनमें लेखन और संपादन का अद्भुत कौशल विद्यमान था। आजादी के समय में अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को आजादी दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण और जनजागरण के लिए समर्पित किया। दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व में एक संपादक के सभी पत्रकारीय गुण दिखाई पड़ते थे। दीनदयाल उपाध्याय मानते थे कि पत्रकारिता एक मिशनरी संकल्प है जिसे पूरी लगन एवं तल्लीनता से करनी चाहिए। समाजहित की पत्रकारिता में व्यावसायिक पत्रकार का कोई स्थान नहीं होता है। 1947 में पंडित दीनदयाल ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। दीनदयाल ने ‘पांचजन्य’, ‘राष्ट्रधर्म’ एवं ‘स्वदेश’ के माध्यम से राष्ट्रवादी जनमत निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। उनके लेख पांचजन्य के घोष वाक्य के अनुरूप ही राष्ट्र जागरण का कार्य करते थे। दीनदयाल उपाध्याय देश में बदलाव के लिए नारे तथा बेवजह के धरना-प्रदर्शनों को कभी प्राथमिकता नहीं देते थे। समस्याओं के निदान के लिए वह पुरूषार्थ को ही महत्वपूर्ण पक्ष मानते थे। दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि राष्ट्रीय एकता को निर्बाध बनाए रखने के लिए राष्ट्र की सांस्कृतिक एकात्मता भी नितांत जरूरी है। हिंदुत्व, भारतीयता, समाज-संस्कृति ,अर्थनीति, राजनीति सहित विभिन्न विषयों पर दीनदयाल जी गहरा अध्ययन था। उनकी पत्रकारिता के अलावा अनेक पुस्तकें हैं जैसे- राष्ट्र चिंतन, सम्राट चन्द्रगुप्त, भारतीय अर्थनीति- विकास की एक दिशा, एकात्म मानववाद आदि पुस्तकें राष्ट्रहित में जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं। पंडित जी ने लगभग दो दशकों के अध्ययन व अनुभव के बाद अपनी विधाराधारा को एकात्म मानववाद के नाम से भारतीय जनसंघ के सिद्धांत और नीति प्रलेख में उद्घोषित किया उसकी प्रस्तावना में वे शंकराचार्य व चाणक्य का स्मरण करते हैं।
राजनीति, समाज और अर्थ को मानव मात्र के कल्याण से जोड़ने का जो एक सूत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने दिया है, वो एकात्म मानववाद के दर्शन के रूप में विख्यात है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा एकात्म मानववाद का विकल्प एवं अंत्योदय का विचार उस कालखंड में दिया गया जब देश में समाजवाद, साम्यवाद जैसी आयातित विचारधाराओं का बोलबाला था। पंडित जी ने भारत की समस्या को भारत के सन्दर्भों में समझकर उसका भारतीयता के अनुकूल समाधान देने की दिशा में एक युगानुकुल प्रयास किया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस बात को लेकर गम्भीर थे कि आजादी से पूर्व का जो संघर्ष था, वो स्वराज का संघर्ष था लेकिन आजादी के बाद का जो संघर्ष है, वो ‘स्व’ की अवधारणा को मजबूत करने का संघर्ष है। पंडित जी मानते थे कि राष्ट्र के निर्माण और उसकी मजबूती में उसकी विरासत के मूल्यों का बड़ा योगदान होता है। देश के आम जन जीवन की बेहतरी, आम जन-जीवन की सुरक्षा, आम जनता को न्याय आदि के संबंध में एक समग्र चिन्तन अगर किसी एक विचारधारा में मिलता है तो वो एकात्म मानववाद का विराट दर्शन है। पंडित जी अन्त्योदय की बात करते थे।
उनके मन में समाज के अन्तिम छोर पर खड़े कतार के अंतिम व्यक्ति तक खुशहाली और समृद्धि का प्रकाश पहुँचाने की चिंता सदैव रही है। उनके वैचारिक दृष्टिकोण में जिस अन्त्योदय की अवधारणा का जिक्र आता है। यह समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को सक्षम, सबल और स्वालम्बी बनाने की उनकी चिंता का ही प्रतिफल था। वर्तमान में जब केंद्र में प्रचंड बहुमत की भाजपा सरकार है जिसकी नींव रखने में दीन दयाल उपाध्याय जी का महती योगदान है तो उनके विचारों का सरकार की नीतियों में व्यापक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। स्टार्ट-अप, हर घर राशन , उज्ज्वला, जल जीवन मिशन जैसी अनेकों योजनाओं के माध्यम से सरकार ने समज के अंतिम पंक्ति पर खड़े व्यक्ति को सबल, सक्षम और स्वालम्बी बनाने की दिशा में कार्य को आगे बढ़ाया है। दीनदयाल जी ने अपने चिन्तन में आम मानव से जुड़ी जिन चिंताओं और समाधानों को समझाने का प्रयास आज से दशकों पहले किया था। उनके विचारों को केन्द्र की मोदी सरकार अपना आधार बना रही है और सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास अर्जित कर रही है। दीन दयाल जी ने अपने चिन्तन में आम मानव से जुड़ी जिन चिताओं और समाधानों को समझाने का प्रयास अपनी पत्रकारिता की लेखनी के माध्यम से आज से दशकों पहले किया था।
पंडित जी मानते थे हमें स्वीकार करना होगा कि भारत के आर्थिक प्रगति का रास्ता मशीन का रास्ता नहीं है। कुटीर उद्योगों को भारतीय अर्थनीति का आधार मानकर विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का विकास करने से ही देश की आर्थिक प्रगति संभव है। दीनदयाल उपाध्याय सहज गति के पक्षधर थे। वे क्रमिक विकास को अधिक टिकाऊ और कम समस्याएं पैदा करने वाला मानते थे। पूंजीवाद व समाजवाद के निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के विवाद को पंडित उपाध्याय गलत मानते हैं। उनके अनुसार इन दोनों ने ही स्वयंसेवी क्षेत्र का गला घोटा है। आर्थिक लोकतंत्र के लिए आवश्यक है स्वयंसेवी क्षेत्र का विकास करना। इसके लिए विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था का होना जरूरी है।
पंडित जी ने सही मायनों में पत्रकारिता को भी एक नई दिशा दी। वे स्वयं कभी संपादक या औपचारिक संवादाता नहीं रहे। उन्होंने संपादकों और संवाददाताओं का सुखद सानिध्य प्राप्त किया। तभी संपादक व पत्रकार उन्हें सहज ही अपना मित्र एवं मार्गदर्शक मानते थे। पत्रकार के नाते पंडित जी का योगदान अनुकरणीय था। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व को समझने के लिए सर्वप्रथम यह बात ध्यान में रखनी होगी कि दीनदयाल जी उस युग की पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते थे जब पत्रकारिता एक मिशन होने के कारण आदर्श थी व्यवसाय नहीं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए किया। एक पत्रकार के रूप में पंडित दीनदयाल का भारत बोध उन्हें जनता से सीधे कनेक्ट करने का काम करता था। अपने लेखन के माध्यम से वह न केवल गंभीर विमर्श का हिस्सा बनते थे बल्कि समस्याओं के समाधान की दिशा में भी आगे बढ़ते दिखाई देते थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय में व्यावसायिक पत्रकार के लक्षण दूर -दूर तक नहीं दिखाई देते हैं। पंडित जी की पत्रकारिता की शुरुआत 1946 में ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक के प्रकाशन से हुई जो राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य व दैनिक स्वदेश तक पहुंची । इन पत्र – पत्रिकाओं में वह सब कुछ लिखते थे। अपने लेखन के माध्यम से वह न केवल गंभीर विमर्श का हिस्सा बनते थे बल्कि समस्याओं के समाधान की दिशा में भी आगे बढ़ते दिखाई देते थे। उनका लेखन जनकल्याण के हित के प्रति हमेशा सर्वोपरि रहता था। उनके जीवन का मंत्र चरैवेति -चरैवेति ही रहा। दीनदयाल जी ने पत्रकारिता द्वारा अपने लेखन के रूप में भारत को भारत से परिचय कराया ।पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि पत्रकारिता करते समय राष्ट्र हित को सर्वोपरि मानना चाहिए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय पांचजन्य में विचार वीथी और ऑर्गनाइजर में पॉलिटिकल डायरी नियमित लिखा करते थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी आजीवन मिशनरी भाव की पत्रकारिता के माध्यम से आमजन की आवाज को बुलंद करते थे। उनका मानना था कि पत्रकारिता करते समय राष्ट्र हित सर्वोपरि होना चाहिए। पंडित उपाध्याय का पत्रकारीय चिंतन राष्ट्रवादी और भारतीय जीवन मूल्यों की विचारधारा से जुड़ता है। पत्रकारिता के आधार पर उन्होंने राष्ट्र को समझने तथा भारतीय अस्मिता को लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। वे राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार कर उनका समाधान अपने आलेखों में प्रकाशित करते थे। समाज और राष्ट्र कल्याण उनकी पत्रकारिता का प्रमुख ध्येय बन गई ।