@ उत्तराखंड में प्रकृति पूजा का पर्व है लोक पर्व हरेला…..
★जी रया ,जागि रया ,
यो दिन बार, भेटने रया,
दुबक जस जड़ हैजो,
पात जस पौल हैजो,
स्यालक जस त्राण हैजो,
हिमालय में ह्यू छन तक,
गंगा में पाणी छन तक,
हरेला त्यार मानते रया,
जी रया जागि रया,…..
★उत्तराखंड में हरेला पर्व सुख, समृद्धि और हरियाली के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है…..
★10 दिनों के अंतराल में पांच या सात अनाजों से उगाए हरेले को देवताओं को चढ़ाने के बाद घर के हर सदस्यों के सिर में कुमाऊंनी शुभाशीष के साथ रखा जाता है….
★रिपोर्ट ( हर्षवर्धन पांडे ) ” स्टार खबर” नैनीताल….
उत्तराखंड में हरेला पर्व सुख, समृद्धि और हरियाली के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है जो प्रकृति से सीधे जुड़ा हुआ है। इस लोक पर्व को अच्छी फसल के सूचक के रूप में भी बड़े धूमधाम के साथ मनाने की परंपरा है। 10 दिनों के अंतराल में पांच या सात अनाजों से उगाए हरेले को देवताओं को चढ़ाने के बाद घर के हर सदस्यों के सिर में कुमाऊंनी शुभाशीष के साथ रखा जाता है। सावन मास की संक्रांति के दिन मनाया जाने वाला लोक पर्व हरेला प्रकृति से जुड़ा हुआ है। सावन माह लगने से नौ दिन पूर्व आषाढ़ माह में पांच अथवा सात अनाजों को मिलाकर छोटी टोकरियों में बोया जाता है। सूर्य की रोशनी से बचाकर घर में मंदिर के पास टोकरियों का रखा जाता है। प्रतिदिन पानी देने के उपरांत दूसरे दिन से ही बीज अंकुरित होकर पीली पौधे बनने लगती है। दसवें दिन सावन माह की संक्रांति को काट कर सबसे पहले देवताओं को और उसके बाद घर के प्रत्येक सदस्यों के सिर में शुभाशीष वचनों के साथ रखा जाता है।
*हरेला लगाते वक्त देते हैं शुभाशीष*
जी रया ,जागि रया ,
यो दिन बार, भेटने रया,
दुबक जस जड़ हैजो,
पात जस पौल हैजो,
स्यालक जस त्राण हैजो,
हिमालय में ह्यू छन तक,
गंगा में पाणी छन तक,
हरेला त्यार मानते रया,
जी रया जागि रया।
अर्थात- जीते-जागते रहना, लोमड़ी की तरह चतुर और सुर्य के समान तेज हो, आसमान के बराबर ऊचां और धरती के बराबर चौड़ा हो जाना, जमीन पर दूब (घास) के समान मजबूत पकड़ हो, हिमालय में जब तक बर्फ है और गंगा जी में जब तक जल है तब तक जीवित रहना, बुढ़ापे में सिलबट्टे में पिसा हुआ चावल खाने तक जीवित रहना।।
*वर्ष में तीन बार बोया जाता है हरेला*
उत्तराखंड में हरेला वर्ष में तीन बार बोया जाता है। पहला हरेला हिंदू नव वर्ष चैत्र माह के वसंत नवरात्रों में प्रतिपदा के दिन बोकर दशमी के दिन काटा जाता है। दूसरा हरेला सावन माह में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। तीसरा हरेला शारदीय नवरात्रों के प्रतिपदा को बोकर दशहरा के दिन काटा जाता है। श्रावण मास भगवान शंकर का विशेष माह होने की वजह से सावन माह के हरेले का विशेष महत्व माना गया है। हरेला मतलब हरा-भरा पर्यावरण, प्रकृति का हरा भरा स्वरूप अर्थात एक ऐसा पर्व जो प्रकृति और पर्यावरण को समर्पित है । हरेला पर्व उत्तराखण्ड के विशेषकर कुमाऊँ अंचल में प्रचलित है।
हरेले की बुआई के लिए एक लकड़ी की तख्ती या बांस के गोल बर्तन मे एक दिन पहले की सुखी हुई मिट्टी रखकर उसमें 5 या 7 अनाज जैसे जिसमें गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि डाला जाता है तत्पश्चात लगातार 9 दिनों तक इसकी देखरेख करनी होती है इसमें शुद्ध पानी प्रतिदिन डालना होता है। नौवें दिन हरेले की गुड़ाई होती है फिर इसमें जुड़वा फल रखकर इसे सजाकर रख देते हैं । दसवें दिन इसे काटकर देवताओं पर चढ़ाया जाता है और सभी एक दूजे के सिर पर रखते हैं।
सदियों पहले तक कुमाऊं क्षेत्र के कुछ पर्यावरणप्रेमी लोगों ने घटते जलस्तर व बढते भूस्खलन को देखते हुए श्रावण मास के वृक्षारोपण को धार्मिक रूप देकर पर्यावरण संरक्षण की मुहिम शुरू की थी जिसे आज भी परंपरा के रूप में लोगों ने कायम रखा है।सावन मास को चौमास (वर्षा ऋतु ) का सबसे प्रमुख माह कहा जाता है क्योंकि इस महीने सबसे अधिक वर्षा होती है जिस कारण वायुमंडल में उपयुक्त नमी मौजूद रहती है इसीलिए इस महीने में पौधारोपण करना भी सबसे उपयुक्त होता है। मान्यतानुसार हरेले के दिन गांवों में हर व्यक्ति को एक न एक पौधा अवश्य लगाना होता है। इसे देखते हुए हरेले के दिन हलिया को तेल व कुछ धनराशि देकर दिन की शुरुआत करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि किसान को खुश करने से फसल अच्छी होती है।
*पलायन का दंश सिमट रहे हैं पर्व*
उत्तराखंड स्थापना के बाद से प्रदेश में तेजी से पलायन हुआ है। लोग कामकाज की तलाश में अपने घरों को छोड़कर महानगरों की तरफ रुख कर चुके हैं। गाँवों में आज बुजुर्गों की पीढ़ी रह गई है। परंपरागत जल स्त्रोत सूख चुके हैं। मौसम का चक्र तेजी से बदल चुका है। ऐसे में हरेला जैसे पर्व भी एक व्यक्ति या उसके परिवार तक सिमटकर रह गए हैं जो काफी चिंताजनक है। पहले इस तरह के पर्वों में पूरा गांव एक घर की तरह एकजुट हो जाता था । आज पलायन के चलते हरेले जैसे त्यौहार सिमटते जा रहे हैं। आज मान्यताओं के अनुसार हमें अधिक से अधिक पौधे लगाने की जरूरत महसूस हो रही है।