@तिरंगे ‘झंडे की कहानी… ★देश की आन, बान और शान तिरंगा किस तरह वजूद में आया.. ★रिपोर्ट- (हर्षवर्धन पांडे) “स्टार खबर” नैनीताल..

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@तिरंगे ‘झंडे की कहानी…

★देश की आन, बान और शान तिरंगा किस तरह वजूद में आया..

★रिपोर्ट- (हर्षवर्धन पांडे) “स्टार खबर” नैनीताल..

उत्तराखंड/ अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद होने के लिए असंख्य लोगों ने अपना बलिदान दिया, उनमें से अनेक लोगों को आज हम विस्मृत कर चुके हैं। देश की आन, बान और शान तिरंगा किस तरह वजूद में आया ये भी आज शायद गिने चुने लोगों को याद होगा। तिरंगे झंडे का जब भी जिक्र आएगा तो पिंगली वैंकैया के नाम का नाम स्मरण किए बिना शायद वो अधूरा रहे।

पिंगली वैंकैया का जन्म 2 अगस्त, 1876 को वर्तमान आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम के निकट भाटलापेन्नुमारु नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम हनुमंतारायुडु और माता का नाम वेंकटरत्नम्मा था । मछलीपत्तनम से हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के बाद वो अपने वरिष्ठ कैम्ब्रिज को पूरा करने के लिए कोलंबो चले गये। भारत लौटने पर उन्होंने एक रेलवे गार्ड के रूप में और फिर बेल्लारी में एक सरकारी कर्मचारी के रूप में काम किया और बाद में वह एंग्लो वैदिक महाविद्यालय में उर्दू और जापानी भाषा का अध्ययन करने लाहौर चले गए।वेंकैया कई विषयों के ज्ञाता थे, उन्हें भूविज्ञान और कृषि क्षेत्र से विशेष लगाव था। वह हीरे की खदानों के विशेषज्ञ थे। वेंकैया ने ब्रिटिश भारतीय सेना में भी सेवा की थी और दक्षिण अफ्रीका के एंग्लो-बोअर युद्ध में भाग लिया था। यहीं यह गांधी जी के संपर्क में आये और उनकी विचारधारा से बहुत प्रभावित हुए। 1906 से 1911 तक पिंगली मुख्य रूप से कपास की फसल की विभिन्न किस्मों के तुलनात्मक अध्ययन में व्यस्त रहे और उन्होनें बॉम्वोलार्ट कंबोडिया कपास पर अपना एक अध्ययन प्रकाशित किया। वह पट्टी वैंकैया (कपास वैंकैया) के रूप में विख्यात हो गये।1899 से 1902 के बीच उन्होनें अफ्रीका के बायर युद्ध में भाग दिया वहीं पर उनकी मुलाक़ात महात्मा गांधी जी से हुई और वे उनके विचारों से बहुत अधिक प्रभावित हुए। स्वदेश वापस लौटने पर मुंबई में गार्ड की नौकरी में लग गए। इसी बीच मद्रास में प्लेग के चलते कई लोगों की मौत हो गई इससे उनका मन बहुत अधिक व्यथित हुआ और उन्होनें वह नौकरी छोड़ दी। वहाँ से मद्रास में प्लेग रोग उन्मूलन में इंस्पेक्टर के पद पर तैनात हो गए। पिंगली की संस्कृत, उर्दू और हिन्दी भाषा में अच्छी पकड़ थी। इसके साथ ही वो भू विज्ञान और कृषि के भी अच्छे जानकार थे। बात 1904 की है जब जापान ने रूस को हरा दिया। इस समाचार को सुनकर वो इतना प्रभावित हो गए कि उन्होनें जापानी भाषा सीख ली ।पिंगली वेंकैय्या की संस्कृत, उर्दू व हिंदी आदि भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी। इसके साथ ही वे भू-विज्ञान एवम कृषि के अच्छे जानकर भी थे।1906 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ जिसकी अध्यक्षता दादा भाई नौराजी ने की। इस सम्मेलन में दादाजी ने पिंगली के कार्यों की सराहना की। बाद में उन्हें राष्ट्रीय काँग्रेस का सदस्य मनोनीत कर दिया गया । काँग्रेस के इस अधिवेशन में यूनियन जैक फहराया गया जिसे देखकर पिंगली वैंकैया का मन द्रवित हो उठा। उसी दिन से वे भारतीय राष्ट्रीय ध्वज की संरचना में लग गए। 1916 में उन्होनें ए नेशनल फ्लैग आफ़ इंडिया नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होनें राष्ट्रीय ध्वज के 30 नमूने प्रकाशित किए थे। महात्मा गांधी के खेड़ा सत्याग्रह ने पिंगली का मन बदल दिया। उसी दौरान उन्होनें अमरीका से कंबोडिया नामक कपास के बीज का आयात किया और इस बीज को भारत के कपास के बीज के साथ अंकुरित कर भारतीय संकरित कपास का बीज तैयार किया जिसे (उनके इस शोध कार्य के लिए) बाद में वैंकैया कपास के नाम से भी जाना जाने लगा। उधर ब्रिटिश सरकार ने पिंगली वैंकैया को रायल एग्रीकल्चर सोसायटी आफ लंदन के सदस्य के रूप में मनोनीत कर उनका गौरव बढ़ाया। पाँच साल बाद भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की बैठक 1921 में विजयवाड़ा में हुई तो उसमें गांधी जी ने सभी को पिंगली के द्वारा तैयार राष्ट्रीय ध्वज के चित्रों की जानकारी दी। इसी बैठक में गांधी जी ने पिंगली के द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय ध्वज को मान्यता दी। इस संदर्भ में महात्मा गांधी के ‘यंग इंडिया ’ में अपने संपादकीय में ‘अवर नेशनल फ़्लैग ’ शीर्षक से लिखा राष्ट्रीय ध्वज के लिए हमें बलिदान देने को तैयार रहना चाहिए। मछलीपट्टनम के आंध्र कालेज के पिंगली ने देश के झंडे के संदर्भ में एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसमें उन्होनें राष्ट्रीय ध्वज से संबन्धित अनेक चित्र प्रकाशित किए। इसके बाद वह वापस मछलीपट्टनम लौट आये और 1916 से 1921 तक विभिन्न झंडों के अध्ययन में अपने आप को समर्पित कर दिया और अंत में वर्तमान भारतीय ध्वज विकसित किया। इसी बीच वहाँ पर वेंकय्या साहब क़ी मुलाकात महात्मा गाँधी जी से हो गई। वे उनके विचारों से काफी प्रभावित हुए, स्वदेश वापस लौटने पर मुंबई (तब मुंबई कों बम्बई कहा जाता था) में रेलवे में गार्ड की नौकरी में लग गए।

सन 1916 में पिंगली वेंकैया ने एक ऐसे ध्वज की कल्पना की जो सभी भारतवासियों को एक सूत्र में बाँध दे। उनकी इस पहल को एस.बी. बोमान जी और उमर सोमानी जी का साथ मिला और इन तीनों ने मिल कर नेशनल फ़्लैग मिशन का गठन किया। वेंकैया ने राष्ट्रीय ध्वज के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से सलाह ली और गांधी जी ने उन्हें इस ध्वज के बीच में अशोक चक्र रखने की सलाह दी जो संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बाँधने का संकेत बने। पिंगली वेंकैया लाल और हरे रंग के की पृष्ठभूमि पर अशोक चक्र बना कर लाए पर गांधी जी को यह ध्वज ऐसा नहीं लगा कि जो संपूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व कर सकता है। राष्ट्रीय ध्वज में रंग को लेकर तरह-तरह के वाद-विवाद चलते रहे।

गांधी जी ने यंग इंडिया ’ में अपने संपादकीय में आगे लिखा ‘जब मैं विजयवाड़ा के दौरे में था उस दौरान पिंगली ने मुझे हरे और लाल रंगों से बने बिना चरखे वाले कई चित्र बनाकर दिये थे। हर झंडे की रूप रेखा पर उन्हें कम से कम 3 घंटे तो लगे ही थे । मैंने उन्हें एक झंडे के बीच में सफ़ेद रंग कि पट्टी डालने कि सलाह दी जिसका उद्देश्य था कि सफ़ेद रंग सत्य व अहिंसा का होता है। उन्होनें इसे तुरंत मान लिया’। इसी के बाद पिंगली द्वारा तैयार गया झंडा लोगों के बीच लोकप्रिय हो गया।

अखिल भारतीय संस्कृत कांग्रेस ने सन् 1924 में ध्वज में केसरिया रंग और बीच में गदा डालने की सलाह इस तर्क के साथ दी कि यह हिंदुओं का प्रतीक है। फिर इसी क्रम में किसी ने गेरुआ रंग डालने का विचार इस तर्क के साथ दिया कि ये हिन्दू, मुसलमान और सिख तीनों धर्म को व्यक्त करता है। काफ़ी तर्क वितर्क के बाद भी जब सब एकमत नहीं हो पाए तो सन् 1931 में अखिल भारतीय कांग्रेस के ध्वज को मूर्त रूप देने के लिए 7 सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई। इसी साल कराची कांग्रेस कमेटी की बैठक में पिंगली वेंकैया द्वारा तैयार ध्वज, जिसमें केसरिया, श्वेत और हरे रंग के साथ केंद्र में अशोक चक्र स्थित था, को सहमति मिल गई। इसी ध्वज के तले आज़ादी के परवानों ने कई आंदोलन किए और 1947 में अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। भारतीय डाक विभाग ने 12 अगस्त 2009 को पूरे 46 बरस बीतने के बाद पिंगली पर 5 रू का डाक टिकट जारी किया।