जजों की कमी से जूझ रहा न्यायिक सिस्टम..पर विशेष मामलों में सरकारों द्वारा की जाती है फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा पीड़ित को त्वरित न्याय दिए जाने की घोषणाएं…
वर्तमान समय में देश में जजों की कमी के कारण जूझ रही न्यायिक व्यवस्था में न्याय पर आमजन का विश्वास मज़बूत करने के लिए विशेष प्रयास किये जाने की महती आवश्यकता महसूस की जाने लगी है।बरसों से संपत्ति,हत्या आरोपितों व अन्य मामलों की सुनवाई लटकती रहती है।लोग अपने पूरे जीवनकाल में अदालतों के चक्कर लगाते रहते हैं।लेकिन न्याय सुलभ नही हो पाता हैं।हालांकि अल्प संसाधनों के बाद भी न्यायपालिका ऐसा सिस्टम बनाने के लिए प्रयासरत रहती है।जिसमें पुराने सभी मामलों को शीघ्रता से निपटाए जा सकें।केंद्र सरकार द्वारा ऐसे सरकारी प्रयास बढ़ाये तो नही जाते पर बड़े व आंदोलित मुद्दों पर त्वरित न्याय दिए जाने की घोषणाएं जरूर कर दी जाती हैं।मतलब सरकार चाहे तो मामलों की सुनवाई जल्द शुरू करवा दी जाएगी अन्यथा नही..?।दोषियों को दंड जल्द मिले यह तो अच्छी बात है पर सिर्फ एक मामले में ही नही।वरन सरकारों को देश की पूरी न्यायिक व्यवस्था को ही मज़बूत करना चाहिए जिससे पीड़ितों को न्याय जल्द मिल सके।और दोषियों को एक निश्चित समय सीमा के भीतर दंडित किया जा सके।संबंध में चाहे उत्तराखंड का अंकिता मर्डर केस हो।उत्तरप्रदेश के उन्नाव में भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर द्वारा एक नाबालिग गरीब लड़की से घिनौना रेप कांड व दबंगई हो,निर्भया कांड हो या सत्तासीनों द्वारा किये गए अन्य कुकृत्यों पर जांच के मामले हों।सरकारें अपनी पार्टी से जुड़े नेताओं के मामलों पर पर्दे डाल कर छुपाना चाहती हैं।और विभिन्न जाँच व फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में जल्द न्याय किये जाने की कोरी घोषणाएं करके मामलों को केवल शांत करने का ही दिखावा मात्र करती हैं।हालांकि उत्तराखंड में ऋषिकेश के निकट वनंत्रा रिसोर्ट का मामला एक सप्ताह पुराना है।जिसमें भाजपा नेता के पुत्र सहित तीन दोषियों को गिरफ्तार भी किया जा चुका है पर उक्त हत्या के बाद मौके पर पुलिस द्वारा सील किये गए कमरों को बुलडोजर द्वारा पहले ढहाए जाने व बाद में उक्त रिसोर्ट के कुछ हिस्से को ढहाए जाने की जाँच कि उक्त आदेश किस अधिकारी ने जारी किए। स्वतः संदिग्ध प्रतीत होता है।
सत्तासीनों द्वारा संसद के भीतर लॉ अमेंडमेंट द्वारा सिस्टम ठीक न करके केवल त्वरित न्याय की कोरी घोषणाएं करना कितना जायज़..?
कुलमिलाकर देर से मिल रहे न्याय को कदापि पर्याप्त व उचित नही कहा जा सकता है।लेकिन कुछ विशेष मामलों पर सड़कों पर निकले जन-सैलाब को ढाढ़स देने व उन मामलों को शान्त करने के लिए हमारे देश में फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट व त्वरित न्याय की दलीलें सरकारों द्वारा दे दी जाती हैं। देश में जब-जब भी सत्ता में मदहोश नेताओं द्वारा महिलाओं व निर्बलों पर ज्यादतियाँ कर दी जाती हैं।और वो घृणित मामले एक बड़े आंदोलन के रूप में सामने आते हैं।जिसमें उन लोगों के ख़िलाफ़ कठोर कार्यवाही करने का मनोभाव सामने आता है।उस पर राज्य व केंद्र सरकारें पीड़ित को त्वरित न्याय देने की घोषणा करती हैं।जिससे समाज में त्वरित संदेश तो जाता है पर न्यायपालिका में वर्षों से करोड़ों लंबित मामलों में सुनवाई न होने से सिस्टम की दोहरी मानसिकता भी उजागर होती है।यहाँ बड़ा सवाल यह उठता है कि अगर देश की न्यायपालिकाएँ स्वतंत्र हैं तो आमजन को न्याय शीघ्र मिले। यह न्यायपालिकाओं को ही तय करना चाहिए। सत्तासीनों को उचित व त्वरित न्यायिक व्यवस्था के लिए संसद के भीतर सख्त कानून अमेंडमेंट लाये जाएं।और संबंध में मामलों के निस्तारण के लिए न्यायपालिकाओं की समयबद्ध किया जाना एक अलग विषय है।पर किसी विशेष मामले में जल्द न्याय दिए जाने की सरकारों की घोषणाएं क्या एक लोकतांत्रिक स्तंभ से छेड़खानी नही कही जाएगी..? क्योंकि रसूखदार व दबंगों के मामलों में अक्सर पीड़ित को न्याय मिलने की संभावनाएं कम ही बनी रहती है।जैसा कि भाजपा के पूर्व विधायक रहे कुलदीप सिंह सेंगर को सवा पाँच वर्षों के भीतर भी फाँसी पर नही टांगा जा सका।