मासी के सोमनाथ मेला में ओड़ा भेंटने की आज भी निभाई जा रही है परम्परा..सांस्कृतिक के साथ व्यापारिक केन्द्र भी रहा है सोमनाथ मेला

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star khabarरिपोर्टर – तनुजा बिष्ट मासी
नैनीताल – हिमालय क्षेत्र की परम्परा और कुमाऊँ व गढवाल के व्यवापारिक रिस्तों के लिये जाने जाने वाला तल्ला गेवाड घाटी का सोमनाथ मेले इस बार भी 9 मई से शुरु होने जा रहा है..कोरोना के बाद ये पहला मौका है की जब इस मेले को फिर धूमधाम से मनाया जायेगा और अपनी परम्परा का निर्वाहन किया जायेगा..अल्मोड़ा जिले के मासी में लगने वाले इस मेले का एतिहासिक के साथ सास्कृतिक महत्व भी है..हांलाकि पिछले कुछ सालों में मेला अपनी पहचान खो रहा है लेकिन इसका महत्व आज भी इस इलाके के लिये है। मेला समिति मासी ने पत्र जारी कर कहा है कि इस बार इस मेले को भव्य रुप से मनाया जायेगा और 7 से 14 मई तक इस सोमनाथ मेले का आयोजन होगा.. पहले दिन मन्दिर में कार्यक्रम होंगे जिसके बाद 8 मई को सल्ट के नगाड़ों का स्वागत होगा जिसके 9 मई को ओड़ा भेंटने की परम्परा होगी और सास्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन इस दौरान होगा…

ओड़ा भेंटने की है परम्परा……

दरअसल सोमनाथ मेला ओड़ा भेंटने की परम्परा सालों से रही है..इस बार पहले कनौड़ी थोकदार के द्वारा ओड़ा भेंटा जाएगा जिसके बाद मासी के थोकदार भी ओड़ा भेंटने के लिये पहुंचेंगे..हांलाकि ये आज एक रस्म के तौर पर हो रहा है लकिन पहले ये एक युद्ध के तौर पर होता रहा है। इसमें नदी से बराबर दूरी पर दोनों थोकदारों की टीमें रहती थी और एक आवाज के बाद दोनों में नदी तक पहुंचने के लिये दौड़ होती थी जो पहले ओड़ा भेंटता था उसकी जीत मानी जाती थी..इस दौरान पत्थरों को भी फेंका जाता है जो आज भी एक रस्म के तौर पर मनाया जा रहा है। इस मेले के दौरान जब झगड़ा बढता रहा तो इसमें समझौता किया गया कि एक साल मासी और एक साल कनौड़ी के थोकदार की जीत होगी और ओड़ा भेंटने के लिये भी अगल अगल समय पर दोनो थोकदारों को आना होगा..पूर्व शिक्षक और बग्वाली खेत के भगवत सिंह बिष्ट कहते हैं कि ये एक पौराणिक मेला है और इसकी शुरुआत कनौड़ी और सल्ट के राजा का युद्ध हुआ जिसमें सल्ट का राजा पराजय हुआ इसके बाद मन्दिर बनाने व मेले का आयोजन होता रहा है।

सांस्कृति के साथ व्यापारिक महत्व भी समेटे है सोमनाथ मेला…

मासी के इस सोमनाथ मेले में सास्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रहती है इस मेले का सास्कृति महत्व इस कदर है कि दूर – दूर से संस्कृतिकर्मी यहां आकर अपने हुनर दिखाते हैं..इस दौरान झोड़ा चांचरी और छपेली की भी झलक देखने को मिलती है तो कलाकार भी इस मेले के आयोजन के लिये यहां पहुंचते हैं। इस मेले के दौरा होड़ रहती है कि एक दूसरे कलाकार पर कटाक्क्ष कर उसको छोटा करने की..वहीं सांस्कृतिक के साथ ये व्यापार का भी केन्द्र रहा है। कई सालों पहले गढवाल और कुमाऊं का ये मेला व्यापारिक केन्द्र भी रहा है..इस दौरान गढवाल क्षेत्र से लोग यहां अपना सामान लेकर आते थे और भाबर इलाके से अपना सामना लेकर दुकानदार आते थे पहले एक दूसरे की जरुरत के हिसाब से सामान अदान प्रदान किया जाता था जिसके बाद जरुरत के हिसाब से पैंसे के जरिये सामना खरिदने की शुरुआत हो गई..हांलाकि अब मेले का दौर धीरे धीरे खत्म होने लगा है। हांलाकि स्थानीय लोग इस मेले को बेहतर करने में जुटे जरुर हैं लेकिन सरकार की मदद नहीं मिलने से मेला खत्म हो रहा है।

ये है इस मेले का एतिहासिक पक्ष..

दरअसल कहा जाता है कि कन्नौज से दो परिवार कनौडी व कुलाल परिवार, तल्ला गेवाड़ मासी में बस गये. कनौडिया राजपूत, रामगंगा के दांये क्षेत्र में और कुलाल राजपूत रामगंगा के बांये क्षेत्र में बस गये. धीरे-धीरे मैदानी व पहाड़ी क्षेत्रों से अन्य जातियां आकर इस क्षेत्र में बसने लगे. कनौडी राजपूतों का इस क्षेत्र से बड़ा दबदबा था. कुलाल राजपूत भी उन्हीं के समकक्ष प्रभाव रखते थे. उस समय इस क्षेत्र को बमोर प्रदेश कहा जाता था. प्रारंभ में इन दोनों जातियों में बड़ी मित्रता थी. बाद में किसी कारणवश यह मित्रता शत्रुता में बदल गई.इसी बीच कन्नौज से एक कान्यकुब्जी ब्राहमण मिश्रा जिस का नाम रामदास था. बद्रीनाथ से लौटते समय मासी में बस गया आज भी उस स्थान को रामदास कहते हैं. बाद में रामदास ने यहीं अपना विवाह कर लिया और उसका वंश बड़ने लगा आज उसी के वंशज मासी में रहने के कारण मासीवाल कहलाने लगे.इसके बाद जब कुलाल राजपूतों ने कनौडिया राजपूतों का प्रतिरोध किया तो कनौडिया ने संगठित होकर कुलाल वंश के मुखिया को मार गिराया और कुलाल वंश को मासी छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा. कुलाल राजपूतों ने मासी छोड़ते समय अपने मित्र रामदास को अपनी सारी संपत्ति अपने क्षेत्र का स्वामित्व प्रदान कर दिया कुलाल वंश मासी छोड़ने के बाद सल्ट क्षेत्र में बस गये. कुलाल वंशियों को को मासी व सोमनाथ मेले की याद सताती रहती थी.

अंग्रेजों के दौर में भी महत्व

जब कुमाऊं में अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हुआ तब उन्होंने चौना से लेकर डांग तक तक के गांवों का थोकदार बना दिया. इधर मासीवाल लोगों ने भी अपनी बुद्धिमत्ता से मासी और ऊंचावाहन, नौगांव, कवडोला, टीमरा, झुडंगा आदि नौ गांवों पर थोकदारी प्राप्त कर ली जिसके फल स्वरुप कनौडी में प्रतिद्धदिता बढ़ने लगी. एक वर्ष सोमनाथ मेले के अवसर पर सल्ट के कुलाल वंश के एक नवयुवक सोबन सिंह कुलाल उम्र 20 वर्ष ने अपनी माँ से सोमनाथ में जाने की इच्छा व्यक्त की तब उसकी माँ ने अपने बेटे को मेले में जाने से मना कर दिया. तब उसने अपनी माँ से मेले में जाने से मना करने का कारण पूछा. उस की माँ ने अपने बेटे को उसके पूर्वजों का पुराना इतिहास बताया. कुलाल वंश को मासी से भगाने व मारने में कनौडियों राजपूतों का हाथ था. यदि उन्हें पता चल जाये की तुम कुलाल वंशी हो तो वे तुम्हें जिन्दा नहीं छोड़ेंगे. तब उसने अपनी माँ से प्रतिज्ञां की कि वह पूर्वजों का बदला अवश्य लेगा. माँ ने अपने बेटे को आशीर्वाद दिया और उसे बताया कि वहाँ पर हमारे मित्र मासीवाल हैं वह तुम्हारी सहायता करगें.जब वह सोमनाथ मेले को जा रहा था तब उसे रास्ते में ऐराड़ी के गायककार (हुडिकिये) मिल गये जो कनौडियों के यश गीत गाते थे, तब सोबन सिंह ने उनको अपनी व्यथा सुनाई और उनसे घनिष्टता बड़ा ली. हुडकिये ने भी उसे मदद का भरोसा दिलाया और वह सबसे पहले मासी आकर, मासीवाल लोगों के घर गया उनको अपना परिचय दिया मंत्रणा कि और उनसे मदद मांगी. मासीवाल लोगों ने उसे सकुशल सल्ट पहुँचाने का आश्वासन दिया. सोबन सिंह मासी से तलवार लेकर हुडकिये को सौंप आया. सोमनाथ के दिन हुडकियों ने यह तलवार अपने गुदड़ी में छिपा रखी थी. नाच गाने के वक्त हुडकिया मलदेव कनौडिया के यश गीत गा रहे थे. हुडकिये के इशारे पर सोबन सिंह कुलाल ने अपनी तलवार से मलदेव कनौडिया को मौत के घाट उतार दिया. और सवयं मासी की और भाग गया उस के पीछे सोमनाथ का का पूरा मेला मासी की ओर उमड़ पड़ा. तब से भटोली का सोमनाथ मासी आ गया.सोबन सिंह कुलाल सकुशल सल्ट को लौट गया और इस मदत के लिए मासीवालों को धन्यवाद दिया और यह भी बचन दिया कि वह प्रतिवर्ष अपने दल बल व ढोल नगाडों के साथ सोमनाथ मेले के पहले दिन मासी पहुंचेगा और मासीवालों का साथ देगा. दूसरे वर्ष वह साल्ट थोक से 22 जोड़े नगाड़ों, पताकाओं, मेलार्थियों, हुडकियों व गायकों के साथ मासी पहुंचा तब से प्रतिवर्ष सोमनाथ के पहले दिन एक बड़ा दिन-रात का मेला मासी में लगने लगा और यह मेला सल्टिया कहलाया क्योंकि इस मेले में अधिकतर लोग सल्ट से आते थे. दूसरे दिन सोमनाथ मेले में मासीवाल व कनौडिया में ओड़ा भेटने की रस्म होती थी. तब उस समय मासीवाल थोक के नौ जोड़ी नगाड़ों व मेलार्थी वापस लौट जाते थे. मासी में सोमनाथ चौंरी में मासीवाल व कनौडियों के डेरे बनाये गये, लेकिन एक साथ ओडा भेंटने की रस्म होने से खून-खराबा होने का अंदेशा बना रहता था.बाद में यह विवाद अंग्रेज मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया. मजिस्ट्रेट ने यह फैसला दिया कि एक साल मासीवाल पहले ओडा भेटेगा तथा दूसरे साल कनौडिया थोक पहले ओड़ा भेटेगा. तब से आज तक सोमनाथ मेले में यही परम्परा चली आ रही है.